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झारखंड के सरकारी स्कूलों में पहली से तीसरी में मातृभाषा में ही पढ़ाई होगी। इसके लिए स्कूली शिक्षा व साक्षरता विभाग रोडमैप तैयार कर रहा है। इसको लेकर मंगलवार से मातृभाषा आधारित बहुभाषी शिक्षण प्रक्रिया के लिए तीन दिवसीय कॉनक्लेव की शुरुआत की गई। इसका उद्धाटन झारखंड शिक्षा परियोजना परिषद की राज्य परियोजना निदेशक किरण कुमारी पासी ने किया।
स्थानीय बीएनआर चाणक्या में आयोजित कॉनक्लेव में उन्होंने कहा कि झारखंड के 259 स्कूलों में मातृभाषा आधारित पढ़ाई शुरू कर दी गई है। अगले पांच साल में सभी 34,500 प्रारंभिक स्कूलों में इसकी शुरुआत की जानी है। इसका रोडमैप तैयार करना है, ताकि हर स्कूल की पहली से तीसरी क्लास तक मातृभाषा में पढ़ाई हो सके। झारखंड में 30 अलग-अलग भाषाओं में बात होती है। बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाकर उन्हें स्कूल में घर जैसा माहौल दिया जाए। इससे बच्चों का पढ़ाई के प्रति मन लगेगा, स्कूलों में ड्रॉप आउट कम होगा और स्कूलों में उनकी संख्या बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि शिक्षा सिर्फ हिंदी या अंग्रेजी की किताब पढ़ना नहीं है, बल्कि व्यक्तित्व का विकास है। स्कूलों में जब बच्चों के घर की, गांव की बात होगी तो वह इससे सीधे जुड़ सकेगा।
कार्यशाला में जेईपीसी के राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी डॉ अभिनव कुमार ने कहा कि इसे कार्यशाला के माध्यम से अगले तीन साल का रोडमैप तैयार किया जाएगा। इसमें ज्यादा से ज्यादा स्कूलों को जोड़ा जाएगा और बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाई करवाई जाएगी। हर साल स्कूलों की संख्या बढ़ेगी और पांच साल में सभी स्कूलों को इससे जोड़ लिया जाएगा।
रूम टू रीड के शक्तिब्रता सेन ने कहा कि दुनिया बहुभाषी है। हमें सिर्फ अंग्रेजी सीखने से भी दुनिया में काम नहीं चलेगा। मातृभाषा आधारित पढ़ाई का हम जो निर्णय ले रहे हैं, उससे बच्चों का फायदा हो, इसे ध्यान में रखना होगा। यूनिसेफ की पारूल ने कहा कि मातृभाषा हमारी नींव है। ये जितनी मजबूत होगी, हम अन्य भाषा उतनी ही बेहतर सीखेंगे। कार्यशाला में सुनीशा आहूजा, पल्लवी शॉ, सूरज पांडेय, रूम टू रीड, पिरामल, सम्पर्क फाउंडेशन, प्रथम संस्था के प्रतिनिधि, अभिभावक और शिक्षकों ने भाग लिया।
अंडा खाने स्कूल आते थे बच्चे
कार्यशाला में आए शिक्षक राजेश सिंह ने बताया कि वे आदिवासी बहुल क्षेत्र के स्कूल में कार्यरत हैं। जब वे बच्चों को हिंदी में पढ़ाते थे तो बच्चे नहीं आते थे। जिस दिन मिड डे मील में अंडा मिलता था, उस दिन बच्चों की उपस्थिति ठीक होती थी। बाद में गैरहाजिर होते थे। उसके बाद उन्होंने स्थानीय भाषा को जोड़कर बच्चों से बातचीत व पढ़ाई शुरू की तो स्कूलों में उपस्थिति बढ़ी। वहीं, अभिभावक सुनीता ने कहा कि मातृभाषा में पढ़ने से बच्चे समझने लगे हैं और स्कूल जाना चाहते हैं। घर पर, गांव में वे स्थानीय भाषा बोलते हैं और जब स्कूल गए थे तो हिंदी में पढ़ाई उन्हें समझ में नहीं आती थी। बाद में शिक्षक, विद्यालय प्रबंध समिति के सदस्य और वोलेंटियर के सहयोग से स्थानीय भाषा में पढ़ाई शुरू की गई।
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